नई दिल्ली,26 दिसंबर। हाल ही में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत को धर्मगुरुओं और संतों के एक वर्ग की ओर से तीव्र प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा है। विवाद का केंद्र यह है कि धार्मिक मामलों में निर्णय का अधिकार किसके पास होना चाहिए—धर्माचार्यों का या आरएसएस जैसे संगठनों का।
विवाद की पृष्ठभूमि
आरएसएस, जो हिंदू समाज को संगठित और सशक्त बनाने के उद्देश्य से कार्य करता है, ने समय-समय पर धर्म, समाज और राजनीति से जुड़े मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त की है। हाल ही में, मोहन भागवत ने हिंदू धर्म और उससे जुड़े विषयों पर अपने विचार रखे, जिसे कुछ धर्मगुरुओं ने अस्वीकार कर दिया।
- संत समाज का तर्क है कि धार्मिक निर्णय केवल धर्माचार्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, और किसी भी सामाजिक या राजनीतिक संगठन को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
- इस संदर्भ में, संतों का यह कहना है कि आरएसएस जैसे संगठन का काम धर्म को संचालित करना नहीं, बल्कि समाज को संगठित करना होना चाहिए।
धर्माचार्यों का तर्क
- धर्म का परंपरागत अधिकार
धर्मगुरुओं का मानना है कि धर्म से जुड़े मुद्दों पर फैसला करने का अधिकार केवल उन्हीं का है, क्योंकि वे धार्मिक परंपराओं, शास्त्रों और सिद्धांतों के ज्ञाता हैं। - धर्म और राजनीति का अलगाव
कई धर्माचार्यों ने इस बात पर जोर दिया कि धर्म और राजनीति का मिश्रण धार्मिक मूल्यों को कमजोर कर सकता है। वे चाहते हैं कि धर्म को सामाजिक संगठनों और राजनीति से स्वतंत्र रखा जाए। - आध्यात्मिक नेतृत्व का सवाल
संत समाज का कहना है कि धर्म का नेतृत्व केवल वे लोग कर सकते हैं जो धर्म और अध्यात्म में निपुण हों।
आरएसएस का दृष्टिकोण
आरएसएस का उद्देश्य हिंदू समाज को एकीकृत करना और इसे आत्मनिर्भर बनाना है। मोहन भागवत ने अपने बयान में यह स्पष्ट किया कि संघ का काम धर्म को संचालित करना नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार करना है।
हालांकि, संघ का यह भी मानना है कि धर्म से जुड़े मुद्दों पर आधुनिक संदर्भ में नए विचारों की जरूरत हो सकती है, और यह चर्चा समाज के हित में होनी चाहिए।
विवाद के प्रमुख बिंदु
- धर्म पर अधिकार का सवाल
यह विवाद इस सवाल को उठाता है कि धार्मिक मामलों में कौन निर्णय लेने के योग्य है—धार्मिक गुरुओं का पारंपरिक नेतृत्व या सामाजिक संगठनों की सामूहिक दृष्टि। - संघ और संतों के बीच मतभेद
संघ और संत समाज के बीच यह टकराव हिंदू धर्म के भीतर विभिन्न दृष्टिकोणों और प्राथमिकताओं को उजागर करता है। - धर्म के आधुनिकीकरण का मुद्दा
संत समाज शास्त्रों और परंपराओं पर आधारित दृष्टिकोण को प्राथमिकता देता है, जबकि संघ समाज की बदलती जरूरतों के अनुसार धर्म के पुनर्मूल्यांकन की बात करता है।
समाधान का रास्ता
- संवाद की जरूरत
संत समाज और आरएसएस को मिलकर संवाद करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि धर्म और समाज का संतुलन बना रहे। - धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान
किसी भी सामाजिक संगठन को धर्म के मूल सिद्धांतों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। - सामूहिक प्रयास
धर्म और समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए एक सामूहिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है।
निष्कर्ष
धार्मिक मामलों पर मोहन भागवत और संत समाज के बीच यह विवाद यह दर्शाता है कि धर्म और समाज के बीच संबंध को कैसे संतुलित किया जाए। जहां धर्माचार्यों का काम धार्मिक परंपराओं और सिद्धांतों का पालन करना है, वहीं आरएसएस जैसे संगठनों की भूमिका सामाजिक एकता और सशक्तिकरण में है।
इस विवाद को एक सकारात्मक संवाद के माध्यम से हल किया जा सकता है, जहां धर्म और समाज एक साथ मिलकर भारतीय संस्कृति और मूल्यों को मजबूत करें।