अजमेर दरगाह में शिव मंदिर होने का दावा: जज की किताब, पृथ्वीराज चौहान और शिवलिंग के जिक्र पर क्या कहते हैं दोनों पक्ष?

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अजमेर ,28 नवम्बर। अजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को लेकर विवाद एक बार फिर सुर्खियों में है। कुछ हिंदू संगठनों ने दावा किया है कि दरगाह जिस स्थान पर स्थित है, वह कभी एक शिव मंदिर था। इस दावे को हाल ही में एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की किताब ने और बल दिया है, जिसमें पृथ्वीराज चौहान और वहां मौजूद कथित “शिवलिंग” का जिक्र किया गया है।

जज की किताब और विवाद की शुरुआत
सेवानिवृत्त जज की लिखी किताब में यह दावा किया गया है कि अजमेर दरगाह के परिसर में स्थित क्षेत्र कभी एक प्राचीन शिव मंदिर था। किताब में ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए कहा गया है कि यह मंदिर पृथ्वीराज चौहान के समय में मौजूद था, लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दरगाह का निर्माण किया।

किताब में यह भी दावा किया गया है कि दरगाह परिसर में एक शिवलिंग के अवशेष मौजूद हैं, जो इस दावे को प्रमाणित करते हैं। यह बयान विवाद का केंद्र बन गया है और दोनों पक्षों के बीच तीखी बहस छिड़ गई है।

हिंदू संगठनों का दावा
हिंदू संगठनों का कहना है कि अजमेर दरगाह एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसे पहले हिंदू धर्म के लिए महत्वपूर्ण मंदिर के रूप में पूजा जाता था। उनका दावा है कि मंदिर को नष्ट कर दरगाह का निर्माण किया गया। वे इसे “धार्मिक न्याय” की लड़ाई के रूप में देख रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि इस मामले की पुरातात्विक जांच कराई जाए।

दरगाह प्रबंधन और मुस्लिम संगठनों का पक्ष
दरगाह प्रबंधन और मुस्लिम संगठनों ने इन दावों को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि अजमेर दरगाह सदियों से एक धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक रही है। उन्होंने कहा कि इस तरह के दावे केवल सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ने के लिए किए जा रहे हैं।

दरगाह के इतिहास पर जोर देते हुए, मुस्लिम संगठन यह बताते हैं कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का यहां आना और उनकी दरगाह का निर्माण इतिहास में दर्ज है। उनका मानना है कि ऐसे दावे ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का प्रयास हैं।

पुरातात्विक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
इतिहासकारों का मानना है कि अजमेर का क्षेत्र प्राचीन काल में हिंदू शासकों के अधीन था, लेकिन 12वीं शताब्दी के बाद मुस्लिम शासकों ने यहां नियंत्रण कर लिया। हालांकि, इस बात के कोई ठोस पुरातात्विक प्रमाण नहीं हैं जो यह साबित कर सकें कि दरगाह के नीचे वास्तव में एक शिव मंदिर था।

पुरातत्व विभाग का कहना है कि अगर इस मामले पर औपचारिक रूप से जांच के आदेश दिए जाते हैं, तो परिसर का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन किया जा सकता है।

विवाद के संभावित प्रभाव
यह विवाद धार्मिक और सामाजिक माहौल को प्रभावित कर सकता है। एक ओर, हिंदू संगठनों का दावा है कि यह “धार्मिक पहचान” का मामला है, तो दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय इसे धार्मिक सौहार्द्र पर हमला मान रहा है।

इस विवाद ने राजनीतिक रंग भी पकड़ लिया है, जिसमें विभिन्न दल इस मुद्दे को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर सकते हैं।

निष्कर्ष
अजमेर दरगाह पर शिव मंदिर होने के दावे ने इतिहास, धर्म और राजनीति के बीच एक नई बहस को जन्म दिया है। हालांकि, इस विवाद का समाधान तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर होना चाहिए। पुरातात्विक और ऐतिहासिक अध्ययन से ही इस मामले की सच्चाई सामने आ सकती है। तब तक, दोनों पक्षों को शांति और सौहार्द्र बनाए रखने के लिए संयम बरतने की आवश्यकता है।

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