असम में अप्रवासियों को नागरिकता देने वाला कानून वैध

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असम ,17 अक्टूबर। सुप्रीम कोर्ट ने सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6A की वैधता को बरकरार रखा है। CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 जजों की कॉन्स्टीट्यूशन बेंच ने इस पर गुरुवार को फैसला सुनाया। बेंच में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे। फैसला पर चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ सहित चार जजों ने सहमति जताई है। वहीं जस्टिस जेबी पारदीवाला ने असहमति जताई।

दरअसल सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6A को 1985 में असम समझौते के दौरान जोड़ा गया था। इस कानून के तहत जो बांग्लादेशी अप्रवासी 1 जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 तक असम आये हैं वो भारतीय नागरिक के तौर पर खुद को रजिस्टर करा सकते है। हालांकि 25 मार्च 1971 के बाद असम आने वाले विदेशी भारतीय नागरिकता के लायक नहीं हैं।

इस कानून पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा- हम धारा 6A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। हम किसी को अपने पड़ोसी चुनने की अनुमति नहीं दे सकते और यह उनके भाईचारे के सिद्धांत के खिलाफ है। हमारा सिद्धांत है जियो और जीने दो।

CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसला सुनाते हुए क्या कहा…

CJI: असम समझौता बढ़ते प्रवास के मुद्दे का राजनीतिक समाधान था। इसमें जोड़ी गई धारा 6ए कानूनी समाधान था।

CJI: केंद्र सरकार इस कानून को अन्य क्षेत्रों में भी लागू कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि वहां असम जैसी परिस्थितियां नहीं थीं। असम में जो लोग आए उनकी संस्कृति पर असम का प्रभाव था।

CJI: धारा 6ए के खिलाफ याचिकाकर्ता ने जो दलील दी कि, एक जातीय समूह दूसरे जातीय समूह की उपस्थिति के कारण अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा करने में सक्षम नहीं है। उन्हें इसे साबित करना होगा। धारा 6A को केवल इसलिए असंवैधानिक नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें रजिस्ट्रेशन का प्रोसेस निर्धारित नहीं किया गया है। यह गलत है। इसलिए मैं भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, धारा 6A वैध है।

क्या कहती है सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6A सिटीजनशिप एक्ट 1955 की धारा 6A, भारतीय मूल के विदेशी प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति देती है। जो 1 जनवरी, 1966 के बाद लेकिन 25 मार्च, 1971 से पहले असम आए थे। यह प्रावधान 1985 में असम समझौते के बाद डाला गया था, जो भारत सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच हुआ समझौता था।

ये नेता बांग्लादेश से असम में प्रवेश करने वाले अवैध प्रवासियों को हटाने का विरोध कर रहे थे। जब बांग्लादेश मुक्ति युद्ध समाप्त हुआ था।असम के कुछ स्वदेशी समूहों ने इस प्रावधान को चुनौती दी, उनका तर्क था कि यह बांग्लादेश से विदेशी प्रवासियों की अवैध घुसपैठ को वैध बनाता है।

2012 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, 12 साल बाद फैसला 2012 में गुवाहाटी के नागरिक समाज संगठन, असम संयुक्त महासंघ ने धारा 6ए को चुनौती दी थी, जिसमें कहा था- धारा 6ए भेदभावपूर्ण, मनमानी और अवैध है, क्योंकि इसमें असम और शेष भारत में प्रवेश करने वाले अवैध प्रवासियों को नियमित करने के लिए अलग-अलग कट-ऑफ तिथियां प्रदान की गई हैं।​​​​​​​

जब 2014 में मामले की सुनवाई हुई तो जस्टिस रोहिंटन नरीमन की अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ ने मामले को संविधान पीठ को भेज दिया, जिसका गठन 19 अप्रैल, 2017 को हुआ। इस पैनल में जस्टिस मदन बी. लोकुर, जस्टिस आर.के. अग्रवाल, जस्टिस प्रफुल्ल चंद्र पंत, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे।

चूंकि, जस्टिस चंद्रचूड़ को छोड़कर सभी जज रिटायर हो चुके हैं, इसलिए चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस एम.आर. शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा की नई पीठ ने धारा 6ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर कीं।

जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस कृष्ण मुरारी के रिटायर होने के कारण दोबारा बेंच बनाई गई, जिसमें सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के साथ जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे। मामले की सुनवाई 5 दिसंबर को शुरू हुई और 12 दिसंबर, 2023 को समाप्त हुई। कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था।

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